Add To collaction

मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


नशा मुंशी प्रेम चंद
4
सोचा था, वहाँ देहात में एकाग्र होकर खूब पढ़ेंगे, पर यहाँ सारा दिन सैर-सपाटे में कट जाता था। कहीं नदी में बजरे पर सैर कर रहे हैं, कहीं मछ‍लियों या चिडियों का शिकार खेल रहे हैं, कहीं पहलवानों की कुश्‍ती देख रहे हैं, कहीं शतरंज पर जमें हैं। ईश्‍वरी खूब अंडे मँगवाता और कमरे में 'स्‍टोव' पर आमलेट बनते। नौकरों का एक जत्‍था हमेशा घेरे रहता। अपने हाँथ-पॉँव हिलाने की कोई जरूरत नहीं। केवल जबान हिला देना काफी है। नहाने बैठो तो आदमी नहलाने को हाजिर, लेटो तो आदमी पंखा झलने को खड़े।
महात्‍मा गांधी का कुंवर चेला मशहूर था। भीतर से बाहर तक मेरी धाक थी। नाश्‍ते में जरा भी देर न होने पाए, कहीं कुंवर साहब नाराज न हो जाऍं; बिछावन ठीक समय पर लग जाए, कुंवर साहब के सोने का समय आ गया। मैं ईश्‍वरी से भी ज्‍यादा नाजुक दिमाग बन गया था या बनने पर मजबूर किया गया था। ईश्‍वरी अपने हाथ से बिस्‍तर बिछाले लेकिन कुंवर मेहमान अपने हाथों कैसेट अपना बिछावन बिछा सकते हैं! उनकी महानता में बट्टा लग जाएगा।
एक दिन सचमुच यही बात हो गई। ईश्‍वरी घर में था। शायद अपनी माता से कुछ बातचीत करने में देर हो गई। यहाँ दस बज गए। मेरी आँखें नींद से झपक रही थीं, मगर बिस्‍तर कैसेट लगाऊं? कुंवर जो ठहरा। कोई साढ़े ग्‍यारह बजे महरा आया। बड़ा मुंह लगा नौकर था। घर के धंधों में मेरा बिस्‍तर लगाने की उसे सुधि ही न रही। अब जो याद आई, तो भागा हुआ आया। मैंने ऐसी डॉँट बताई कि उसने भी याद किया होगा। ईश्‍वरी मेरी डॉँट सुनकर बाहर निकल आया और बोला—तुमने बहुत अच्‍छा किया। यह सब हरामखोर इसी व्‍यवहार के योग्‍य हैं। इसी तरह ईश्‍वरी एक दिन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गई, मगर लैम्‍प मेज पर रखा हुआ था। दियासलाई भी थी, लेकिन ईश्‍वरी खुद कभी लैम्‍प नहीं जलाता था। ‍‍फिर कुंवर साहब कैसे जलाऍं? मैं झुंझला रहा था। समाचार-पत्र आया रखा हुआ था। जी उधर लगा हुआ था, पर लैम्‍प नदारद। दैवयोग से उसी वक्‍त मुंशी रियासत अली आ निकले। मैं उन्‍हीं पर उबल पड़ा, ऐसी फटकार बताई कि बेचारा उल्‍लू हो गया— तुम लोगों को इतनी फिक्र भी नहीं कि लैम्‍प तो जलवा दो! मालूम नहीं, ऐसे कामचोर आदमियों का यहाँ कैसे गुजर होता है। मेरे यहाँ घंटे-भर निर्वाह न हो। रियासत अली ने कॉँपते हुए हाथों से लैम्‍प जला दिया।
वहाँ एक ठाकुर अक्‍सर आया करता था। कुछ मनचला आदमी था, महात्‍मा गांधी का परम भक्‍त। मुझे महात्‍माजी का चेला समझकर मेरा बड़ा लिहाज करता था; पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था। एक दिन मुझे अकेला देखकर आया और हाथ बांधकर बोला—सरकार तो गांधी बाबा के चेले हैं न? लोग कहते हैं कि यह सुराज हो जाएगा तो जमींदार न रहेंगे। मैंने शान जमाई—जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्‍या है? यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा और क्‍या करते है?
ठाकुर ने ‍पिर पूछा—तो क्‍यों, सरकार, सब जमींदारों की जमीन छीन ली जाएगी। मैंनें कहा-बहुत-से लोग तो खुशी से दे देंगे। जो लोग खुशी से न देंगे, उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए हैं। ज्‍यों ही स्‍वराज्‍य हुआ, अपने इलाके असामियों के नाम हिबा कर देंगे।
मैं कुरसी पर पॉँव लटकाए बैठा था। ठाकुर मेरे पॉँव दबाने लगा। फिर बोला—आजकल जमींदार लोग बड़ा जुलुम करते हैं सरकार! हमें भी हुजूर, अपने इलाके में थोड़ी-सी जमीन दे दें, तो चलकर वहीं आपकी सेवा में रहें।
मैंने कहा—अभी तो मेरा कोई अख्तियार नहीं है भाई; लेकिन ज्‍यों ही अख्तियार मिला, मैं सबसे पहले तुम्‍हें बुलाऊंगा। तुम्‍हें मोटर-ड़्राइवरी सिखा कर अपना ड्राइवर बना लूंगा। सुना, उस दिन ठाकुर ने खूब भंग पी और अपनी स्‍त्री को खूब पीटा और गॉंव महाजन से लड़ने पर तैयार हो गया।

   1
0 Comments